Tuesday, January 9, 2018

History of jijamata जीजा माता की जीवनी और इतिहास

Jijabai History
जीजाबाई शाहजी भोसले राजमाता जीजाबाई और साधारणतः जीजाई के नाम से जानी जाती है। और वह  मराठा साम्राज्य के संस्थापक कििछत्रपति शिवाजी महाराज की माता है।

राजमाता जीजाबाई का इतिहास – Rajmata Jijabai History in Hindi

जीजाबाई का जन्म 12 जनवरी 1598 को हुआ, और वह महाराष्ट्र राज्य के बुलडाणा जिले के सिंदखेड राजा के लखोजीराव जाधव की बेटी थी। उस समय की परम्पराओ के अनुसार। अल्पायु में ही शाहजी राजे भोसले से विवाह हो गया, जो निजामशाही के दरबार में सैन्य दल के सेनापति थे। जीजाबाई ने 8 बच्चों को जन्म दिया जिनमे से 6 बेटिया और 2 बेटे थे। और उनमें से ही एक शिवजी महाराज भी थे।
जीजाबाई ने इतिहास में कई महत्वपूर्ण निर्णय लिये जो मराठा साम्राज्य के विस्तार के लिये सहायक साबित हुए।
जीजाबाई एक चतुर और बुद्धिमान महिला थी। जीजाबाई शिवजी को प्रेरणादायक कहानिया सुनाकर प्रेरित करती थी। उनसे प्रेरित होकर ही शिवाजी ने स्वराज्य हासिल करने का निर्णय लिया। उस समय उनकी आयु केवल 17 साल की ही थी। शिवाजी से महान शासक का निर्माण करने में जीजाबाई का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
कुछ ही समय बाद 17 जून 1674 को जीजाबाई की मृत्यु हो गयी।
जीजाबाई एक तेजस्वी महिला थीं। जीवन भर पग-पग पर कठिनाइयों और विपरीत परिस्थितियों को झेलते हुए उन्होंने धैर्य नहीं खोया। उन्होंने शिवाजी को महान वीर योद्धा और स्वतन्त्र हिन्दू राष्ट्र का छत्रपति बनाने के लिए अपनी सारी शक्ति, योग्यता और बुद्धिमत्ता लगा दी। शिवाजी को बचपन से बहादुरों और शूर-वीरों की कहानिया सुनाया करती थीं।
भगवत गीता के उपदेश और रामायण आदि कथाये सुनकर उन्होंने शिवाजी के बाल-ह्रदय पर स्वाधीनता की लौ प्रज्वलित कर दी थी। उनके दिए हुए इन संस्कारों के कारण आगे चलकर वह बालक हिन्दू समाज का संरक्षक एवं गौरव बना।
दक्षिण भारत में हिन्दू स्वराज्य की स्थापना की और स्वतन्त्र शासक की तरह अपने नाम का सिक्का चलवाया तथा ‘छत्रपति शिवाजी महाराज’ के नाम से ख्याति प्राप्त की।
वीरमाता जीजाबाई
उपनाम :जीजामाता
जन्मस्थल :सिंदखेड राजा, बुलढाणा, महाराष्ट्र
मृत्युस्थल:महाराष्ट्र
आन्दोलन:मराठा साम्राज्य

जन्म और पारिवारिक जीवन

मराठा सम्राट छत्रपति शिवाजी राजे भोसले की माता जीजाबाई का जन्म सिंदखेड़ नामक गाँव में हुआ था। यह स्थान वर्तमान में महाराष्ट्र के विदर्भ प्रांत में बुलढाणा जिले के मेहकर जनपद के अन्तर्गत आता है। उनके पिता का नाम लखुजी जाधव तथा माता का नाम महालसाबाई था।
जीजाबाई का विवाह शाहजी के साथ कम उम्र में ही हो गया था। उन्होंने सदैव अपने पति का राजनीतिक कार्यो मे साथ दिया। शाहजी ने तत्कालीन निजामशाही सल्तनत पर मराठा राज्य की स्थापना की कोशिश की थी। लेकिन वे मुगलों और आदिलशाही के संयुक्त बलों से हार गये थे। संधि के अनुसार उनको दक्षिण जाने के लिए मजबूर किया गया था। उस समय शिवाजी की आयु 14 साल थी अत: वे मां के साथ ही रहे। बड़े बेटे संभाजी अपने पिता के साथ गये। जीजाबाई का पुत्र संभाजी तथा उनके पति शाहजी अफजल खान के साथ एक लड़ाई में मारे गये। शाहजी मृत्यु होन पर जीजाबाई ने सती (अपने आप को पति के चिता में जल द्वारा आत्महत्या) होने की कोशिश की, लेकिन शिवाजी ने अपने अनुरोध से उन्हें ऐसा करने से रोक दिया।

प्रेरक मातृत्व

वीर माता जीजाबाई छत्रपति शिवाजी की माता होने के साथ-साथ उनकी मित्र, मार्गदर्शक और प्रेरणास्त्रोत भी थीं। उनका सारा जीवन साहस और त्याग से भरा हुआ था। उन्होने जीवन भर कठिनाइयों और विपरीत परिस्थितियों को झेलते हुए भी धैर्य नहीं खोया और अपने ‘पुत्र ‘शिवा’ को वे संस्कार दिए, जिनके कारण वह आगे चलकर हिंदू समाज का संरक्षक ‘छात्रपति शिवाजी महाराज’ बना। जीजाबाई यादव उच्चकुल में उत्पन्न असाधारण प्रतिभाशाली थी। जीजाबाई जाधव वंश की थी और उनके पिता एक शक्तिशाली सामन्त थे। शिवाजी महाराज के चरित्र पर माता-पिता का बहुत प्रभाव पड़ा। बचपन से ही वे उस युग के वातावरण और घटनाओँ को भली प्रकार समझने लगे थे।

आशिष पटले

Monday, January 8, 2018

History of bhima koregaon ( भीम कोरेगांव का इतिहास )

*भीमा कोरेगांव का इतिहास*



वो सिर्फ 500 थे, लेकिन दिल में जज़्बा था कि जातिवाद को हराना है.. वे जान पर खेल गए, कई तो कट मरे, पर आख़िरकार... भीमा कोरेगांव के मैदान से पेशवा की फ़ौज भाग गई। 1818 को इसी दिन महार सैनिकों ने पेशवाई को हराकर भारत को जातिमुक्त और लोकतांत्रिक बनाने की दिशा में पहला ऐतिहासिक क़दम बढ़ाया"

वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल की यह लाइन दलितों के शौर्य की उस कहानी को कहती है जो आज से लगभग दो सौ साल पहले घटित हुई थी। वह साल 1818 था जब आज के ही दिन यानि 1 जनवरी 1818 को पूरी दुनिया भर में दलित समाज के शौर्य की गाथा लिखी गई थी।

यह घटना जहां दलितों की शौर्यगाथा है तो वहीं मनुवादियों के मुंह पर कालिख। इस महान गाथा में 500 नायकों ने हिस्सा लिया था। ये लोग बहुजन समाज के नायक हैं। इस ऐतिहासिक दिन को याद करते हुए डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर हरसाल 1 जनवरी को उस महान स्थान पर जाकर उन वीर दलितों का नमन किया करते थे।

1 जनवरी 1818 को कोरेगांव के युद्ध में महार सैनिकों ने ब्राह्मणवादी पेशवाओं को धूल चटा दी थी। बाबासाहेब ने अपनी किताब राइटिंग्स एंड स्पीचेस (अंग्रेज़ी) के खंड 12 में ‘द अनटचेबल्स एंड द पेक्स ब्रिटेनिका’ में इस तथ्य का वर्णन किया है। यह कोरेगांव की लड़ाई थी, जिसके माध्यम से अंग्रेजों ने मराठा साम्राज्य को ध्वस्त कर भारत में ब्रिटिश राज स्थापित किया। यहां 500 महार सैनिकों ने पेशवा राव के 28 हजार सैनिकों की फौज को हराकर देश से पेशवाई का अंत किया।

कोरेगांव भीमा नदी के तट पर महाराष्ट्र के पुणे के पास स्थित है। 01 जनवरी 1818 को सर्द मौसम में एक ओर कुल 28 हजार सैनिक जिनमें 20000 हजार घुड़सवार और 8000 पैदल सैनिक थे, जिनकी अगुवाई पेशवा बाजीराव-II कर रहे थे तो दूसरी ओर बॉम्बे नेटिव लाइट इन्फेंट्री के 500 महार सैनिक, जिसमें महज 250 घुड़सवार सैनिक ही थे। आप सोच सकते हैं कि सिर्फ 500 महार सैनिकों ने किस जज्बे से लड़ाई की होगी कि उन्होंने 28 हजार पेशवाओं को धूल चटा दिया।

दूसरे शब्दों में कहें तो एक ओर ब्राह्मण राज बचाने की फिराक में पेशवा थे तो दूसरी ओर पेशवाओं के पशुवत अत्याचारों से बदला चुकाने की फिराक में गुस्से से तमतमाए महार। आखिरकार इस घमासान युद्ध में पेशवा की शर्मनाक पराजय हुई। 500 लड़ाकों की छोटी सी सेना ने हजारों सैनिकों के साथ 12 घंटे तक वीरतापूर्वक लड़ाई लड़ी।

भेदभाव से पीड़ित अछूतों की इस युद्ध के प्रति दृढ़ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि महार रेजिमेंट के ज्यादातर सिपाही बिना पेट भर खाने और पानी के लड़ाई के पहले की रात 43 किलोमीटर पैदल चलकर युद्ध स्थल तक पहुंचे। यह वीरता की मिसाल है। इस युद्ध में मारे गए सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए एक चौकोर मीनार बनाया गया है, जिसे कोरेगांव स्तंभ के नाम से जाना जाता है। यह महार रेजिमेंट के साहस का प्रतीक है। इस मीनार पर उन शहीदों के नाम खुदे हुए हैं, जो इस लड़ाई में मारे गए थे। 1851 में इन्हें मेडल देकर सम्मानित किया गया।

इस युद्ध में पेशवा की हार के बाद पेशवाई खतम हो गयी थी और अंग्रेजों को इस भारत देश की सत्ता मिली। इसके फलस्वरूप अंग्रेजों ने इस भारत देश में शिक्षण का प्रचार किया, जो हजारों सालों से बहुजन समाज के लिए बंद था।